सागर: नदी, तालाब या कुएं के पानी में जो हरी काई दिखाई देती है, जिसे अक्सर बेकार समझा जाता है, वास्तव में हमारे जीवन के लिए बेहद उपयोगी है. साइंस की दुनिया ने इसे साबित भी किया है. इसी काई (algea) पर सागर के डॉक्टर हरि सिंह गौर सेंट्रल यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. वंदना विनायक ने एक बार फिर अपने रिसर्च से दुनिया को चौंका दिया है. फॉरेंसिक साइंस क्रिमिनोलॉजी डिपार्टमेंट की असिस्टेंट प्रोफेसर और उनकी टीम ने पानी में लगने वाली काई (शैवाल) से अद्भुत प्रोडक्ट्स तैयार किए हैं, जिसमें उन्होंने हर्बल टी (चाय) और स्किन केयर प्रोडक्ट तैयार किए हैं.
स्किन केयर और हर्बल टी के फायदे
डॉ. वंदना ने लोकल 18 से खास बातचीत में बताया कि यह काई हमारी त्वचा को ताजगी प्रदान करती है और त्वचा से संबंधित रोगों को रोकने में मदद करती है. इसके अलावा, चाय के रूप में इसका सेवन करने से यह शरीर के अंदर जाकर कोशिकाओं को बढ़ाने में सहायक है. खासतौर पर, लंबी रिसर्च के बाद तैयार की गई चाय के फायदे अद्भुत हैं, जो डायबिटीज, बीपी से लेकर कैंसर जैसी बीमारियों से लड़ने में मदद कर सकती है. दावा किया जा रहा है कि इसका सेवन करने से लोग जवान रहते हैं.
ऊर्जा बढ़ाने वाले प्रोडक्ट की कीमत
इस प्रोडक्ट की एक किलोग्राम कीमत 2500 यूएस डॉलर (2,09,536 भारतीय रुपये) के बराबर है. लेकिन, एल्गी से बनने वाले इस प्रोडक्ट को रीजनल रेट पर लाने के लिए काम किया जा रहा है. इसमें बबल फार्मिंग तकनीक का उपयोग कर वेस्ट मटेरियल से उत्पाद को बेहद कम खर्च में तैयार किया जा सकता है. जल्द ही इसे मार्केट में लाने की तैयारी की जा रही है ताकि यह लोगों की हेल्थ को सही रखने में मदद कर सके.
एंटीऑक्सीडेंट का फायदा
रोज एक कप इस चाय का सेवन करने से शरीर में एंटीऑक्सीडेंट बनेगा, जो नए सेल को बढ़ाता है और डेड सेल को जल्दी खत्म करता है. यही कारण है कि यह कैंसर, डायबिटीज और बीपी जैसी बीमारियों से भी लड़ने में मदद करता है.
जर्मनी से पेटेंट
डॉ. वंदना विनायक की टीम की रिसर्च को स्किन केयर प्रोडक्ट के लिए जर्मनी से पेटेंट मिला है. हर्बल टी के लिए उन्होंने भारत में भी पेटेंट के लिए आवेदन दिया है. इस उत्पाद को व्यावसायिक स्तर पर बनाने के लिए फिलहाल काम चल रहा है और जल्द ही यह बाजार में उपलब्ध होगा.
हिमालय की शैवाल का उपयोग
डॉ. वंदना विनायक ने बताया कि यह एक माइक्रो एल्गी है, जिसका वैज्ञानिक नाम हेमिटोकोकस लेकसट्रिस है. यह पानी में पाई जाती है और इसे लोअर हिमालय से इकट्ठा किया गया है. हर शैवाल में कोई न कोई पिगमेंट होता है. जब शैवाल को किसी तरह का स्ट्रेस दिया जाता है, तो वह लिपिड्स या पिगमेंट बनाने लगती है. इसमें एक महत्वपूर्ण पिगमेंट पाया जाता है, जिसका नाम एस्ट्राजेनथिन है.
रिसर्च की सफलता
डॉ. वंदना बताती हैं कि इसकी कल्चरिंग के लिए उन्होंने अलग-अलग साइज के बबल रैप का परीक्षण किया और 10 हजार माइक्रो लीटर से इसकी शुरुआत की. बबल रैप के अंदर शैवाल को बढ़ाने की कोशिश की गई. क्योंकि यह काफी सस्ता है और अपशिष्ट का उपयोग किया जा रहा है. जब तक इसमें न्यूट्रिएंट डाला जाता है, यह हरा रहता है, लेकिन जब न्यूट्रिएंट डालना बंद कर दिया जाए या इसे ज्यादा रोशनी में रखा जाए, तो यह एक दिन के अंदर हरे से लाल रंग का हो जाता है, जिससे एस्ट्राजेनथिन प्राप्त होता है.
कौन हैं डॉ. वंदना?
डॉ. वंदना विनायक पंजाब के जालंधर की रहने वाली हैं. साल 2013 से पहले वे हरियाणा स्टेट फॉरेंसिक लैब में काम कर चुकी हैं. इस दौरान उन्होंने कई चर्चित मामलों की जांच की थी और अपने कार्य के कारण वे लगातार दो बार विश्व के दो प्रतिशत वैज्ञानिकों की सूची में शामिल हो चुकी हैं
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FIRST PUBLISHED : October 1, 2024, 13:05 ISTNews18 India व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ेंDisclaimer: इस खबर में दी गई दवा/औषधि और स्वास्थ्य से जुड़ी सलाह, एक्सपर्ट्स से की गई बातचीत के आधार पर है. यह सामान्य जानकारी है, व्यक्तिगत सलाह नहीं. इसलिए डॉक्टर्स से परामर्श के बाद ही कोई चीज उपयोग करें. Local-18 किसी भी उपयोग से होने वाले नुकसान के लिए जिम्मेदार नहीं होगा.